अहंकार और आलस्य दोनों हारे. जनता ने सत्ता धारियों को हराया और विपक्ष को डराया. कांग्रेस जीती नहीं है. चुनाव की अश्लील चकाचौंध में गांव देहात में अपना खुरदरा चेहरा दिखाया. लोकतंत्र में तंत्र के शिकार लोक ने विरोध तो जताया लेकिन विकल्प नहीं पाया.
आखिर 2019 के लोकसभा चुनाव का तथाकथित सेमीफाइनल पूरा हो ही गया. उससे यह तो तय नहीं हुआ कि कौन जीतेगा. लेकिन चुनाव के मुद्दे तय हो गये, उसके कुछ नियम कायदे बन गये, और दोनों प्रतिद्वंद्वियों को सबक मिल गया. जो चुनाव कल तक बीजेपी की जेब में दिख रहा था, वह अचानक एक खुला खेल बन गया. लोकतंत्र में तंत्र पर लोक की आवाज दर्ज करने का रास्ता एक बार फिर खुल गया.
यह तय हो गया कि 2019 का चुनाव अब हिंदू-मुसलमान के मुद्दे पर नहीं किसान और नौजवान के मुद्दे पर होगा. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों में बीजेपी के सिंहासन को हिलाने का काम ग्रामीण वोटर ने किया है. जनता के लिए इस बार सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजगारी और खेती किसानी के संकट का था. परिणामों और सर्वेक्षणों दोनों से स्पष्ट है कि बीजेपी के खिलाफ गांव देहात और गांव में भी किसानों के बीच गुस्सा अपेक्षाकृत ज्यादा था. पहली बार मतदान कर रहे युवाओं और बेरोजगारों ने जमकर बीजेपी के खिलाफ वोट दिया.
उधर योगी के तमाम प्रचार और मीडिया के जरिये माहौल बनाने के बावजूद मंदिर का मुद्दा नहीं चला. 'मंदिर वहीं बनायेंगे, तारीख नहीं बतायेंगे, चुनाव से पहले आयेंगे' का खेल जनता कुछ समझने लगी है. अब आनेवाले महीनों में सरकार को किसान और नौजवान के लिए कुछ योजना लागू करनी होगी, विपक्ष को भी उनके लिए कुछ कार्यक्रम देना होगा.
इन परिणामों से यह भी साबित हो गया कि बीजेपी सिर्फ पैसे और मीडिया के सहारे लोकसभा चुनाव नहीं जीते सकती. बेशक, चुनाव में पैसे की भूमिका बढ़ती जा रही है. बेशक मीडिया के सहयोग बिना राजनीति करना संभव ही नहीं रहा है. इस चुनाव में बीजेपी को इन दोनों का खूब सहारा था. पार्टी ने इन चुनाव को जीतने के लिए अकूत पैसा लगाया था.
टीवी और अखबार का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी की सेवा में बिछा हुआ था. फिर भी इन तीनों राज्यों में बीजेपी का हारना यह साबित करता है कि हमारे लोकतंत्र में लोक की भूमिका अब भी शून्य नहीं हुई है. अगर चुनाव जीतना है तो आज भी जनता के सुख-दुख से अपना रिश्ता बनाना जरूरी है.
इन चुनावी परिणामों से व्यक्ति पूजा की राजनीति पर भी कुछ अंकुश लगेगा. हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में कांग्रेस को सबसे बड़ी सफलता वहां मिली जहां उसके पास एक भी कद्दावर नेता नहीं था. उधर बीजेपी के लिए नरेंद्र मोदी का जादू इस बार नहीं चला. केवल इन चुनाव परिणामों से यह निष्कर्ष तो नहीं निकाला जा सकता कि मोदी जी की लोकप्रियता खत्म हो गई है.
तमाम सर्वेक्षण बताते हैं कि राहुल गांधी और खुद अपनी पार्टी ंकी तुलना में प्रधानमंत्री अब भी ज्यादा लोकप्रिय हैं. लेकिन इतना जरूर है की मोदी का तिलिस्म अब टूट चुका है, अब उन्हें अपने सरकार का हिसाब देना होगा.
सत्ता के अहंकार को तोड़ने के साथ-साथ इन चुनावों ने कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के आलस को तोड़ा है, उसे वक्त रहते चेताया है. जो कांग्रेस राजस्थान में बिल्ली के भागों छींका टूटने की फिराक में लेटी हुई थी, उसे जनता ने नाकों चने चबा दिये. महारानी की अहंकारी, भ्रष्ट और निकम्मी सरकार को भी बड़े बहुमत से न हरा पाना कांग्रेस के नाकामी का सबूत है.
राजस्थान में पहले 1998 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत देकर देने के बाद वोटर 1999 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की तरफ खिसक चुका है. इसलिए कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है. मध्य प्रदेश में भी पिछले पांच साल विपक्ष की भूमिका न निभानेवाली कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में उनकी पार्टी की शानदार सफलता से सबक मिलना चाहिए. अगर जनता का विश्वास जीतना है, तो उनके बीच रहना होगा, उनके मुद्दों को उठाना होगा, संघर्ष करना होगा. कहने को कांग्रेस हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों में जीत गयी, लेकिन सच यह है की राजस्थान और मध्यप्रदेश में नाम के वास्ते ही यह जीत है.
इस चुनाव परिणाम ने गठबंधन के मिथक को भी तोड़ा है. कागज पर देखें तो तेलंगाना में कांग्रेस का गठबंधन हर तरह से टीआरएस पर भारी था, लेकिन उस अवसरवादी गठबंधन में न तो विश्वसनीयता थी, न कोई चेहरा और ना ही कोई संकल्प. उधर हर कोई मान कर चल रहा था कि अजीत जोगी और मायावती का गठबंधन कांग्रेस को टंगड़ी लगा देगा. लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने अजीत जोगी की मौकापरस्त, तिकड़मी राजनीति को खारिज कर दिया.
मतलब यह कि 2019 के चुनाव में सिर्फ महागठबंधन बना लेने से काम नहीं चलेगा. गठबंधन उपयोगी होते हैं. उससे उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बहुत फर्क पड़ सकता है. लेकिन चुनाव सिर्फ जोड़-तोड़ से नहीं जीते जाते. चुनाव में जरूरी है जनता के सामने एक सपना रखना, एक आस जगाना. सच यह है कि कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के पास आज पूरे देश के लिए न तो कोई सपना है, ना ही कोई योजना, ना कोई चेहरा, ना कोई चाल. सिर्फ चुनावी समीकरण की राजनीति आस नहीं जगाती.
बस इतना जरूर है कि इन परिणामों ने आगामी लोकसभा चुनाव को ज्यादा संतुलित कर दिया है. इस चुनाव के आधार पर सारे देश के बारे में निष्कर्ष निकालना तो गलत होगा, लेकिन इतना तो तय है कि हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों की 65 सीटों में बीजेपी को अपनी जीती हुई 62 सीटों में से कम से कम आधी से हाथ गंवाना पड़ेगा. इतना तो तय है कि अगर चुनाव किसान और जवान के मुद्दे पर होंगे तो हिंदी पट्टी में कमोबेश सभी राज्यों में बीजेपी को नुकसान होगा.
अभी 2019 के मैच का फैसला नहीं हुआ है. सच यह है कि बीजेपी हारी है, लेकिन अभी कांग्रेस जीती नहीं है. जनता तो मुंह खोलकर बोल रही है, लेकिन पार्टियां कान खोलकर सुनने को तैयार नहीं है.
Very True :)
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